Hetuchakradamru Ke Mool-Paath Ka Vivechan (Dignaga Virchit)
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Pages : 320
Size : 5.5" x 8.5"
Condition : New
Language : Hindi
Weight : 0.0-0.5 kg
Publication Year: 2023
Country of Origin : India
Territorial Rights : Worldwide
Reading Age : 13 years and up
HSN Code : 49011010 (Printed Books)
Publisher : Motilal Banarsidass Publishing House
About the Book:
‘हेतुचक्रडमरू’, जिसे ‘हेतुचक्रहमरू’, ‘हेतुचक्रनिर्णय’, ‘हेत्वोद्धारशास्त्र’, ‘पक्षधर्मचक्र’ आदि नामों से भी जाना जाता है, मध्ययुग के विख्यात बौद्ध आचार्य दिघ्नाग की एक अल्पज्ञात किंतु महत्त्वपूर्ण कृति है जिसका संस्कृत मूल दिघ्नाग के अन्य ग्रन्थों की भाँति लुप्त बतलाया जाता है। सौभाग्य से ज-होर के संत बोधिसत्त्व (शांतरक्षित) एवं बौद्ध भिक्षु धर्माशोक द्वारा किया गया इसका प्रामाणिक तिब्बती भाषांतर तंग्युर के उपखण्ड म्दो फोलियो 193-194 में सुरक्षित है। इसके अतिरित्तफ़ संस्कृत-ब्राह्मण ग्रन्थों में दिघ्नाग रचित इस ग्रन्थ के कुछ सूत्र यत्र-तत्र उद्धृत मिलते हैं। इन समस्त सूत्रें के आधार पर आधुनिक युग के विद्यान्वेषी इस पुस्तक के तत्त्वान्वेषण में प्रविष्ट होते हैं। प्रस्तुत पुस्तक उन्ही सूत्रें के आधार पर हेतुचक्रडमरू के मूल संस्कृत-पाठ के पुनर्निर्माण एवं उस पाठ के विवेचन का विनम्र प्रयास है। हेतुचक्रडमरू के दो रूप: अपने पद-विन्यास और पद-प्रयोग के कारण हेतुचक्रडमरू के दो रूप उभर कर सामने आते हैं_ तार्किक तथा तांत्रिक रूप। क. तार्किक रूप - अपने प्रथम रूप में हेतुचक्रडमरू उस सुप्रसिद्ध भारतीय बौद्ध एकावयवी-न्याय की आधारशिला प्रतीत होता है जो बौद्ध न्याय दिघ्नाग के पूर्व अव्यवस्थित किंतु पंचावयवी था, दिघ्नाग के साथ त्रिवयवी हुआ, दिघ्नाग के परवर्ती धर्मकीर्ति के काल में द्विवयवी होता हुआ अन्ततः बौद्ध शांतरक्षित, अर्चट और कमलशील के काल में एकावयवी हो गया। बौद्ध-न्याय की यह पद्धति तर्क की जटिल बहु-अवयवी पद्धति को सरल से सरलतम तक ले जाती है। हेतुचक्रडमरू दिघ्नाग के काल में प्रचलित बौद्ध और ब्राह्मण दार्शनिक परम्पराओं के बीच हुए शास्त्रर्थों के ऐतिहासिक संकेत देता है। जैसाकि सर्वज्ञात है|
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